मैं घर हूँ

मैं घर हूँ
मैंने सब देखा है।
उस नन्ही-सी जान का आना भी,
और उस बड़े से आसमान का जाना भी।
कई अंजान चेहरों को अपना बनते देखा मैंने,
कई अपनों को नज़रों से गिरते देखा मैंने।

मैं घर हूँ,
मैंने सब देखा है।

कई पतझड़ देखे,
कई बारिशें देखीं,
कभी तूफ़ान से, तो कभी मुस्कान से सावन देखे।
मैंने तुम्हारे जीवन का हर वसंत देखा है।

मैं घर हूँ,
मैंने सब देखा है।

तुम्हारे जाने पर उन बुज़ुर्ग आँखों में आँसू देखे,
तुम्हारे आने पर उन थके चेहरों पर मुस्कान देखी।
सब कुछ देखता हूँ,
पर कुछ बोलता नहीं।
तुम सोचते हो कि मैं कुछ समझता नहीं,
जड़ हूँ, पर बेजान नहीं।

मैं घर हूँ,
मैंने सब देखा है।

तुम तो रोकर कर लेते हो दिल हल्का किसी के जाने पर,
मैं तो उसका भी हक़दार नहीं।
टूट जाऊँगा मैं भी एक दिन,
इस समय की मार से।
घर ही हूँ, कोई भगवान नहीं।

तुम न कहना कुछ,
मैं सब समझता हूँ।
मैं घर हूँ,
मैं सब जानता हूँ।

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