अजनबी राहों में दोस्ती का सफर
अनजान ही था ये शहर,
जिसे कुछ गैरों ने अपना बना लिया।
आए कई लम्हे ऐसे, जब उदासी छाई थी घर की याद में,
पर फिर भी वो ना थे हमसे दूर,
उन्होंने ही इन लम्हों को हँसकर जीना सिखा दिया।
तवज्जो तो नहीं दी हमने कभी किसी बात को,
फिर कैसे इन गैरों ने मुझे अपना बना लिया?
ये भूल थी मेरी या मैं नासमझ था,
ये तो पता नहीं,
पर कुछ तो बात थी...
जो इन्होंने इस ज़िंदगी के सफर में
हमें अपना हमसफर बना लिया।
यूँ तो कहने को हैं बातें हज़ार,
पर वो अल्फाज़ नहीं।
गीत हैं कई इस दिल में,
पर उन्हें गा पाऊँ, वो साज़ नहीं।
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