नई भोर, नई चाल

भोर हुई, भोर हुई,  
घड़ियों की घूमी सुई।  
चहुँ ओर शोर हुई,  
भोर हुई, भोर हुई।  
तुम भी तो इन सबका एक अंग हो,  
फिर क्यों इतने दंग हो?  
चलो जहाँ ले चलें हवाएँ,  
तुम भी तो इनके संग हो।

नया ये जो आरंभ है,  
जो अति विशेष ये प्रारंभ है।  
उम्मीदें हैं, आशाएँ हैं, आकांक्षाएँ हैं,  
फिर क्यों लगते तुम्हें ये इतने पराए हैं?

चाल धीमी हुई तो क्या हुआ,  
पर चलो तो सही।  
जीत हो या हार हो,  
पहले लड़ो तो सही।  
चाहे विचारों का उन्माद हो,  
या बीते हुए कल का अवसाद हो,  
कर दरकिनार सबको पहल करो,  
जो कर सको सही सब, तो सब करो।

न सोचना कि परिणाम क्या होगा,  
न सोचना कि अंजाम क्या होगा।  
हुई भोर ऐसी, तो शाम क्या होगा...

                          अभिषेक सेंगर

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